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यूपी में आरटीआई, हो गई धराशायी
भ्रष्टाचार व कुप्रशासन के मामलों में नौकरशाह बेपरवाह
श्रीप्रकाश तिवारी
लखनऊ। कुप्रशासन, भ्रष्टाचार, शोषण व अन्याय को नियंत्रित करने के
उद्देश्य से लाया गया सूचना का कानून यूपी में धराशायी हो चुका है। कानून
का पालन कम दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी
नौकरशाही ही नहीं चाहती है कि सूचना के अधिकार का इस्तेमाल उसके विरुद्ध
हो। इसलिए ज्यादातर भ्रष्टाचार और कुप्रशासन के मामलों में मांगी गई
सूचनाएं वादी को नहीं मिल पा रही हैं जिसकी वजह से ही 32 हजार से भी
ज्यादा वाद राज्य सूचना आयोग में लम्बित पड़े हैं।
यूपी में 14 सितंबर 2005 को उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के गठन की
अधिसूचना जारी करने के साथ ही आरटीआई की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। 20 जून
2006 से आयोग ने कानून का संचालन भी प्रारम्भ कर दिया था। तत्कालीन मुख्य
सूचना आयुक्त न्यायमूर्ति एमए खान और राज्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र
शर्मा ने शुरुआती दौर में कानून को आगे बढ़ाने की दिशा में पुरजोर पहल भी
की थी। वादी के प्रार्थना पत्रों पर सूचनाएं भी मिलनी शुरू हो गई थीं। उस
दौरान कई भ्रष्ट और नाकारा अफसरों की पोल भी खुली। यह सूचना के कानून का
ही प्रभाव था कि अंबेडकर उान निर्माण से सम्बंधित सारी सूचनाएं सरकार के
न चाहते हुए भी मुहैया करानी पड़ी। इसी मामले में आयोग ने कानून के
प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए कैबिनेट सचिव शशांक शेखर और तत्कालीन मुख्य
सचिव पीके मिश्रा को तलब भी किया था। आयोग की सक्रियता का ही परिणाम था
कि वर्ष 2006-07 में 9633 वाद दायर हुए और तत्परता के साथ उसी वर्ष 5716
मामलों का निस्तारण कर सूचनाएं उपलब्ध कराई गईं। मगर जैसे-जैसे यह कानून
तेजी के साथ लोकप्रिय होता गया वैसे-वैसे ही शासन व प्रशासन में बैठे
अफसर आरटीआई को लेकर नाक और भौह सिकोड़ने लगे।
दरसल 50 से भी अधिक वर्षो से सरकारी विभागों की कार्यसंस्कृति में आरटीआई
ने हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था। सरकारी योजनाओं में पूछे जाने वाले
सवाल अफसरों को सालने लगे। चूंकि आयोग उस दौरान वादी को सूचना दिलाने के
लिए अफसरों की लगाम कसने लगा था इसलिए एक तरफ सरकारी मशीनरी कानून से
पल्ला झाड़ने की कोशिश में लगी हुई थी तो दूसरी तरफ सूचना मांगने वालों
की तादात एकदम से दोगुने से भी ज्यादा हो गई। कानून की शुरुआती पहल का ही
परिणाम था कि पहले वर्ष आए 9633 मामलों के विपरीत वर्ष 2007-08 में राज्य
सूचना आयोग में 25238 नए वाद दायर किए गए। यह संख्या 2008-09 में 32475
हो गई। 09-10 में 56671 तक जा पहुंची। जनसूचना अधिकारियों, विभागों में
नियुक्त प्रथम अपीलीय अधिकारियों की हीलाहवाली का परिणाम यह रहा कि 09-10
में लम्बित वादों की संख्या 32811 तक जा पहुंची।
चूंकि कानून नया था और उसके सामने मुश्किलों की फेहरिस्त लम्बी थी इसलिए
सूचना के अधिकार अधिनियम के सामने कई ऐसे मौके भी आए कि सरकार से लड़ाई
लड़नी पड़ी। प्रदेश में भ्रष्टाचार के मकड़जाल में उलझी नौकरशाही बार-बार
आरटीआई के रास्ते में अवरोध बन कर खड़ी हो जा रही थी। यह सिलसिला आज भी
जारी है। भ्रष्टाचार व कुप्रशासन से जुड़े विभाग हर तरफ रोड़ा अटकाने में
जुटे हैं। आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि खुद मुख्य सचिव अतुल
गुप्ता ने अपने दफ्तर को लोकप्राधिकारी कार्यालय मानने से इंकार कर दिया
था। ज्यादातर अधिकारियों को कानून के बारे में न तो जानकारी है और न ही
वे अधिनियम को जानने में कोई दिलचस्पी ले रहे हैं। लिहाजा वादी द्वारा
मांगी गई सूचनाओं को या तो टाल देते हैं या फिर भ्रामक सूचनाएं देकर अपना
पल्ला झाड़ लेते हैं।
नियुक्त नहीं हुए जनसूचना अधिकारी
प्रदेश में कानून को लागू करने व उसका उद्देश्य सार्थक बनाने में सबसे
बड़ी भूमिका जनसूचना अधिकारियों की है। कानून को लागू होने के दो वर्ष तक
अधिसंख्य सरकारी विभागों में जनसूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी तक
नामित नहीं हो पाए थे और आज भी स्थिति यह है कि कई एक विभागों में
जनसूचना अधिकारी की नियुक्ति नहीं हो पाई है। यहां तक कि कानून को
क्रियान्वित करने के जिम्मेदार मुख्य सचिव जैसे लोकप्राधिकारी के दफ्तर
में ही जनसूचना अधिकारी नामित नहीं किया गया था। आयोग के पहल के बाद ही
मुख्य सचिव अतुल गुप्ता ने बाकायदा आदेश जारी कर जनसूचना अधिकारी नियुक्त
करने तथा कानून से अनिभिज्ञ अपीलीय अधिकारियों को अधिनियम की पुस्तिका का
अध्ययन के लिए 14 जुलाई 2008 को शासनादेश जारी किया।
पैरवी करने से कतराते रहे अफसर
18 जनवरी 2010 को सरकार को होश आया कि राज्य सूचना आयोग में विचाराधीन
मामलों की संख्या बढ़ रही है। विचाराधीन मामलों के लिए जिम्मेदार सरकार व
नौकरशाह जानबूझकर न तो वादी के आवेदन पर गंभीर दिखे और न ही आयोग में
लंबित वादों की पैरवी में उपस्थित हुए। राज्य सूचना आयोग ने जब इसमें
सख्त रुख अपनाया तो शासन की सचिव अनीता सिंह ने सभी विभागों के प्रमुख
सचिवों, सचिवों तथा विभागाध्यक्षों को पत्र लिख कर पैरवी करने के
शासनादेश जारी किया।
कनिष्ठ अफसरों पर रही जिम्मेदारी
बड़े अधिकारियों को कानून से इतनी चिढ़ हो गई थी कि वे आयोग में लगे
पैरवी के लिए जनसूचना अधिकारी व प्रथम अपीलीय अधिकारी को न भेज कर सबसे
कनिष्ठ अधिकारी को पैरवी के लिए भेजते रहे।
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